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सच्चा गुरु कौन?: एक शिष्य की यात्रा- पुराने समय की बात है। एक आश्रम में एक बुद्धिमान और शांत स्वभाव के गुरु रहते थे। उनके कई शिष्य थे, जो दूर-दूर से उनके पास ज्ञान प्राप्त करने आते थे। उन सभी शिष्यों में तरुण नाम का एक युवक बड़ा ही उत्साही और महत्वाकांक्षी था। वह गुरु के ज्ञान और उनके सम्मान से बहुत प्रभावित था और हमेशा सोचता रहता था, "काश! मैं भी एक दिन गुरु बन पाऊँ।"
शिष्य की महत्वाकांक्षा और गुरु का रहस्यमय जवाब
कुछ साल बीत गए। तरुण ने गुरु की सेवा में अपना समय बिताया और कई शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया। एक दिन, तरुण ने गुरु से मन की बात कही।
"गुरुदेव," तरुण ने कहा, "मैंने बहुत कुछ सीख लिया है। अब मेरा मन करता है कि मैं भी आप जैसा बनूँ। मेरे भी शिष्य हों, और मुझे भी वही मान-सम्मान मिले जो आपको मिलता है।"
गुरु ने तरुण की बात को ध्यान से सुना और मुस्कुराकर बोले, "तरुण, तुम्हारी इच्छा अच्छी है। लेकिन गुरु बनना इतना आसान नहीं है। इसके लिए वर्षों की तपस्या, त्याग और अपने ज्ञान को गहरा करना पड़ता है।"
तरुण थोड़ा बेचैन हो गया। "इतने साल क्यों, गुरुदेव? मैंने तो बहुत कुछ जान लिया है। क्या मैं अभी से किसी को दीक्षा नहीं दे सकता? मुझे लगता है कि मैं अब तैयार हूँ।"
गुरु ने तरुण की आँखों में देखा। उन्हें तरुण की जल्दबाज़ी और अहंकार का एहसास हुआ। उन्होंने तरुण को सीधे जवाब देने के बजाय एक छोटी-सी परीक्षा लेने का फैसला किया।
गुरु की अनोखी परीक्षा
गुरु ने तरुण को अपने पास बुलाया और कहा, "तरुण, ज़रा इस तख़्त से नीचे उतर जाओ।"
तरुण ने तुरंत आज्ञा का पालन किया और नीचे खड़ा हो गया।
इसके बाद, गुरु स्वयं उस ऊँचे तख़्त पर खड़े हो गए। फिर उन्होंने तरुण से कहा, "अब तुम मुझे वापस उस तख़्त पर पहुँचा दो, जहाँ मैं पहले खड़ा था।"
तरुण यह सुनकर हैरान रह गया। वह एक पल के लिए असमंजस में पड़ गया, फिर बोला, "गुरुदेव, यह कैसे संभव है? मैं खुद नीचे खड़ा हूँ। मैं आपको ऊपर कैसे उठा सकता हूँ? पहले तो मुझे खुद ऊपर आना होगा।"
गुरु ने धीमी और गहरी आवाज़ में कहा, "तरुण, तुम्हारा जवाब ही तुम्हारे सवाल का जवाब है।"
तरुण ने गुरु की ओर देखा और कुछ समझ नहीं पाया।
गुरु ने कहा, "ठीक इसी तरह, तुम किसी को अपना शिष्य बनाकर ऊपर उठाना चाहते हो, तो तुम्हारा खुद का स्तर ऊँचा होना ज़रूरी है। तुम जब तक खुद ज्ञान और विवेक के मामले में ऊँचे नहीं उठोगे, तब तक तुम किसी को रास्ता नहीं दिखा पाओगे।"
गुरु ने आगे कहा, "सच्चा गुरु वह नहीं होता जो सिर्फ ज्ञान बाँटता है। सच्चा गुरु वह होता है जो अपने शिष्यों को अपने साथ ऊपर उठाता है। लेकिन इसके लिए, पहले तुम्हें अपने भीतर की कमियों को दूर करना होगा। अपनी महत्वाकांक्षा को सेवा में बदलो।"
शिष्य का आत्मज्ञान और सच्ची सीख
गुरु की बात सुनकर तरुण की आँखें खुल गईं। उसे अपनी जल्दबाज़ी और छिपे हुए अहंकार का एहसास हुआ। वह समझ गया कि गुरु बनना एक पद नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी है। यह सम्मान पाने के लिए नहीं, बल्कि दूसरों को सही राह दिखाने के लिए होता है। वह तुरंत गुरु के चरणों में झुक गया और बोला, "गुरुदेव, मुझे माफ कर दीजिए। मैं अपनी मूर्खता के लिए शर्मिंदा हूँ। अब मैं समझ गया हूँ कि सच्चा गुरु वही होता है जो खुद पहले ऊँचा उठता है।"
उस दिन से, तरुण ने अपनी महत्वाकांक्षा को एक तरफ रख दिया और सिर्फ ज्ञान को और गहरा करने में लग गया। उसने समझा कि जब वह सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लेगा, तो शिष्य खुद-ब-खुद उसके पास आएंगे। और हुआ भी ऐसा ही। कुछ सालों बाद, तरुण एक विद्वान और विनम्र व्यक्ति के रूप में पहचाना जाने लगा, और लोग बिना कहे ही उसे गुरु मानकर उसका सम्मान करने लगे।
इस कहानी से सीख:
इस कहानी की सबसे बड़ी सीख यही है कि अगर हम किसी को जीवन में मार्गदर्शन देना चाहते हैं, तो पहले हमें खुद उस लायक बनना होगा। किसी पद या सम्मान के पीछे भागने के बजाय, हमें अपनी योग्यता और ज्ञान को बढ़ाना चाहिए। जब हम खुद एक ऊँचे स्थान पर पहुँच जाते हैं, तो सम्मान और पहचान हमें अपने आप मिल जाते हैं। सच्चा गुरु वह होता है, जो अपने ज्ञान से नहीं, बल्कि अपने चरित्र और व्यवहार से दूसरों को प्रभावित करता है।
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