मेरे घर के पास एक रहते थे बाबू।
अपनी पत्नी को भी जो कर न सके काबू॥
दिन भर कलम घिसा करते थे वे दफ्तर में।
किन्तु शान्ति कब उनको मिलती अपने घर में॥
कहा सूनी हो जाने पर झगड़ा बढ़ जाता।
पत्नी बकती, बाबू का पारा चढ़ जाता॥
मार-काट हर रोज हुआ करती थी ऐसी।
भीड़ इकठ्ठा हो जाती बाजारों जैसी ॥
हुआ एक दिन ऐसा बाबू कहीं गये थे।
सोच रही थी, कहीं डूब कर मर जाऊँगी।
खड़े द्वार पर उसने एक साधु को देखा।
बोली, बाबा कह दो-कल ही मैं मर जाऊँ।
रोज-रोज के झंझट से छुटकारा पाऊँ॥
इसके बाद सुनाई उसने राम-कहानी।
ये लो चावल, जब कोई गुस्सा हो जाये।
दूर मुसीबत होगी, अच्छा अब जाता हूँ।
दस दिन बाद मिलूँगा तुमसे कह जाता हूँ॥
सीख मान कर बाबा की वह चावल खाती।
पति बकता था बहुत किन्तु वह ध्यान न लाती॥
उसे देख कर शान्त न बाबू कुछ कहते।
दस दिन के उपरान्त वही बाबा फिर आया।
“बहुत सुखी हूँ बाबा जी जन्तर मन्तर से।
वे बोले, 'कुछ नहीं हुआ छूमंतर से॥
क्रोध कभी मत करो सिखाया था चावल से ।
सौ बलाएँ टालो सदैव चुप - के बल से॥
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