चंपकवन में हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी सभी जानवरों का 'संपन्न मेला' लगने जा रहा था। 'संपन्न मेला' इसलिए आयोजित किया जाता था ताकि पूरे जंगल के पशु-पक्षी आपस में मिलें, एक-दूसरे के विचारों को जानें, समझें और उनमें न केवल पारस्परिक मेलजोल में वृद्धि होती है बल्कि एकजुटता भी बढ़ती है।
चंपकवन के राजा शेरसिंह की तरफ से यह घोषणा कर दी जाती कि इस दौरान कोई पशु-पक्षी किसी दूसरे का खाना नहीं पाएगा। लिहाजा सभी जानवर बड़े उत्साह और उमंग के साथ इस मेले में शरीक होते।
मेले में सभी अपनी-अपनी तरफ से कोई न कोई तोहफा लाते और किसी वनराजा को भेंट कर देते। वनराजा फिर अपनी तरफ से जंगल के सभी जानवरों को भोजन देते, जिसमें सभी की जरूरत, पसंद का ख्याल रखा जाता।
हाथी दादा के लिए स्पेशल घास, केले का पूरा पेड़ और दूसरे ढेर से फल होते। तो खरगोश भाई के लिए सुंदर लाल-लाल ताजी गाजरें, तोते-मैना के लिए दाने की दाल, हरी मिर्च के साथ मंगवाई जाती। तो भालू साहब पीकर तृप्त होते हैं।
कहने का मतलब यही कि सभी को महाराजा की इस दावत का महीनों से इंतजार रहता था। दावत के बाद सभी का मन प्रसन्न होता और जंगल के माहौल में एक नयापन आ जाता।
कोई बंधन न था। हां, तो प्यारे जानवरों, आप सबने दावत का भरपूर आनंद लिया। अब हर वर्ष की तरह इस बार भी सभी प्राणियों का सहयोग आपस में एकता बढ़ाने का प्रयास सफल रहा।
थोड़ी देर में वनराज शमशेर सिंह के आते ही वातावरण उनकी जयजयकार से गूंज उठा।
"शांत हो जाइए, भाइयों, सभा शुरू की जाती है। जो भी कुछ सुनाना चाहे यहां मंच पर आकर सुनाए!"
धीरो बंदर ने घोषणा करते हुए कहा। सभा में घोषणा सुनते ही सन्नाटा छा गया। फिर एक-एक करके जानवर मंच पर जाकर गीत, गजल, समूहगान, भाषण आदि सुनाने लगे।
जब बात गीत गाने की चली तो कोयल रानी का नाम पुकारा गया। कोयल अपने मीठे गले से गर्व में इठलाती हुई मंच की तरफ बढ़ चली। जानवरों ने तालियां बजाईं तो कोयल का गर्व दुगना हो गया। कोयल ने अपने सुंदर सुरिले गाने से सभी को मोह लिया। "वंस मोर वंस मोर!" की आवाजें आने लगीं। जानवर एक गाना और सुनना चाहते थे।
"ऐसा है, भाइयों और बहनों! मैं तो गा चुकी। अब आप क्यों न मादा कौआ से एक गाना सुन लेते। आपका जायका भी बदल जाएगा और उस बेचारी का मान भी बढ़ जाएगा।" कोयल ने मंच पर कहा तो सभा में हंसी फूट पड़ी।
"भला कौआ क्या गाएगा। उससे तो बस कांव कांव सुन लो। ऐसे बुरे और बेसुरे राग से तो भगवान बचाए!"
कालू लोमड़ बोला।
मादा कौआ को कोयल की बात बहुत बुरी लगी। भरी सभा में उसने उसकी तोहीन की थी। अपमान की आग में वह ज्यादा देर झुलसती रह सकी और मंच पर आ गई।
"तो क्या आप सचमुच गाना गाएंगी?" धीरू बंदर ने पूछा।
महामंत्री जी, कोयल ने मुझे जलील किया है। अपने गले के सुरीलापन के घमंड में उसने मेरा अपमान किया है।"
वैसे उसने कुछ गलत तो नहीं कहा। उसका गला सुरीला है और आपका कर्कश, यह बात तो सभी जानते हैं।
सभी जानते हैं तभी तो यह बात कहने के पीछे उसका लक्ष्य मेरा अपमान करना था।
"हां, मैंने तेरा अपमान करने के लिए ही ऐसा कहा था। तू है ही ऐसी निकम्मी और बेकार, किसी काम की नहीं।"
तब मंच पर कोयल ने आकर जोर से कहा, "अम्मा जैसी निकम्मी और बेकार के दम पर ही तेरे जैसी सुरीला गाने वाली कोयल के बच्चे पलते हैं, बड़े होते हैं, समझी। ऐसा गला और गाने का क्या फायदा कि तुम अपने अंडे न से सको। घोंसला बनाकर उनमें अपने बच्चों न पाल सको।"
कोयल ने मादा कौआ की खरी-खरी हकीकत सुनी तो एकदम सकते में आ गई।
"महामंत्री मुझे तो क्षमा करें, मैं अपनी बड़ाई नहीं करती। पर यह सच है कि सदियों से कोयल अपने अंडे चुपचाप हंस-कौओं के घोंसलों में रख दिया करती आई है। जिनमें हंस सेते हैं ये समझती हैं कि हम मूर्ख हैं और उन्हें अपने समझकर की।"
"मानो कोयल, ने तुम्हारे घोंसलों में चुपके से रख दिया पर बाद में पता चला कि तुम ने अपने नोचे गिरा दिए पर मैं भी यही क्रूरता समझा। अब भला बच्चों का क्या दोष जो उन अंडे के आवरण में छुपे धरती और आकाश में विचार करने की प्रतिभा में होते हैं। इसलिए हम उन्हें अपने बच्चों के समान पाल-पोसकर बड़ा करती हैं।"
"तुम महान हो, मैंने अपने गाने के गर्व में तुम्हें भला बुरा कहा, गलत समझा। तुम्हारे त्याग भरे जीवन का मोल न समझी।" कोयल ने पछतावा भरे शब्दों में बोला।
तुम्हारा पछतावा तो तभी पूरा माना जाएगा, जब तुम्हारी दोस्ती के साथ कौए की भी अपनी तरह निभा सिखाया।
वनराज ने दोनों की बात सुनकर निर्णय दिया। इस तरह सभा विसर्जित हो गई। पिछले समझौतों मुताबिक इस बार की सभा मज़बूत थी