बच्चों की हिंदी प्रेरक कहानी: बहुरूपिया

बहुरूपिया राजा के दरबार में पहुंचा, और बोला "यशपताका आकाश में सदैव फहराती रहे। बस दस रूपये का सवाल है, महाराज से बहुरूपिया और कुछ नहीं चाहता"।  "मैं कला का परखी हूं।

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बहुरूपिया

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बच्चों की हिंदी प्रेरक कहानी: बहुरूपिया:- बहुरूपिया राजा के दरबार में पहुंचा, और बोला "यशपताका आकाश में सदैव फहराती रहे। बस दस रूपये का सवाल है, महाराज से बहुरूपिया और कुछ नहीं चाहता"।  "मैं कला का परखी हूं, कलाकार का सम्मान करना राज्य का नैतिक कर्तव्य है मैं तुम्हारी कला पर प्रसन्‍न होकर दस रूपये का पुरस्कार दे सकता हूं, पर दान के लिए मजबूर हूं"। राजा ने कहा। (Motivational Stories | Stories)

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"कोई बात नहीं। मैं आपके सिद्धांत को तोड़ना नहीं चाहता। मुझे अपना दूसरा स्वांग दिखाने के लिए तीन दिन का समय तो दीजिए"। इतना कहकर बहुरूपिया वहां से चला गया। दूसरे दिन नगर से बाहर एक टेकरी के ऊपर समाधि मुद्रा में एक साधु दिखाई दिया। मेरूदंड सीधा, नेत्र बंद, तेजस्वी चेहरा और जटाएं। इधर-उधर पशु चराने वाले चरवाहों ने उस साधु को देखा। वे सब उत्सुकतापूर्वक उसके पास पहुंचे।

तपस्वी मृगछाला पर ध्यानावस्थित था। उसे पता ही न चला कि सामने कौन खड़ा है?" स्वामी जी, आपका आगमन कहां से हुआ है? कुछ क्षण रूककर फिर दूसरा प्रश्न चरवाहों ने किया। "क्या आपके लिए कुछ फल, दूध और मेवा आदि की व्यवस्था की जाए?" (Motivational Stories | Stories)

मुख से कुछ शब्द का निकलना तो दूर की बात रही, उसका शरीर भी रंच मात्र न हिला। शाम को सभी चरवाहे अपने पशुओं को लेकर...

मुख से कुछ शब्द का निकलना तो दूर की बात रही, उसका शरीर भी रंच मात्र न हिला। शाम को सभी चरवाहे अपने पशुओं को लेकर नगर वापस आये। उनके द्वारा घर-घर में तपस्वी संत की चर्चा होने लगी। दूसरे ही दिन सुबह नगर के अनेक सभ्य, शिक्षित नागरिक, दरबारी धनिक तथा श्रद्धालु व्यक्ति अपने-अपने वाहन लेकर नगर से बाहर की ओर दौड़ पड़े। किसी की थाली में मेवा, फल और मखाने की खीर थी। किसी की बाल्टी दूध से भरी थी और कोई तरह-तरह के पकवानों से अपने थाल भरकर ले गया था। सबका एक ही आग्रह था कि उसमें से एक ग्रास लेकर साधु महाराज अपने श्रद्धालु भक्तों को कृतार्थ करें।

सबके आग्रह व्यर्थ गये। साधु ने आंख तक न खोली। वह तो अविचलित रूप से वहीं बैठा रहा। संत के ध्यान की कहानी महामंत्री के पास तक पहुंच गई। वह अनेक प्रकार की स्वर्ण और रजत मुद्राएं रथ में भरकर उस टीले पर पहुंचे। मुद्राओं का ढेर लगा दिया संत के आसपास। संत से बड़े विनम्र स्वर में निवेदन करते हुए महामंत्री ने कहा "बस! एक बार नेत्र खोलकर कृतार्थ कीजिए। मैं किसी भौतिक लालसा से आपको परेशान करने नहीं आया हूं"। 

महामंत्री का निवेदन भी बेकार गया। अब उसे निश्चय हो गया कि यह संत अवश्य पहुंचा हुआ है। राग-विराग, लोभ, मोह सभी से मुक्त है, तभी तो इतने बड़े-बड़े उपहारों की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखा। (Motivational Stories | Stories)

महामंत्री ने राजा के महल में जाकर सारी वस्तुस्थिति से राजा को अवगत कराया राजा को सोचते देर न लगी। वह मन ही मन पछताने लगे। जब मेरे राज्य में इतने बड़े तपस्वी का आगमन हुआ है, तो मुझे अवश्य उनकी अगवानी करने जाना था। उन्होंने दूसरे ही दिन सुबह उस तपस्वी के दर्शन करने जाने का निश्चय किया। गांव भर में यह ख़बर बिजली की तरह फैल गई। जिस मार्ग से राजा की सवारी निकलने वाली थी। वह मार्ग साफ करा दिये गये। रास्ते में सैनिकों की व्यवस्था कर दी गई।

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नियत समय पर राजा अपने राजदरबारियों समेत नगर के बाहर स्थित उस टीले पर पहुंचे, जहां तपस्वी विराजमान था। वहां पहुंचकर राजा ने तपस्वी के चरणों में एक लाख अशर्फियों का ढेर लगा दिया और अपना मस्तक उसके चरणों में टेक कर आशीर्वाद की कामना करने लगे, परन्तु तपस्वी विचलित नहीं हुआ। अब तो प्रत्येक व्यक्ति को निश्चय हो गया कि साधु बहुत त्यागी और पहुंचा हुआ है। सांसारिक वस्तुओं से उसका तनिक भी लगाव नहीं है। (Motivational Stories | Stories)

चौथे दिन बहुरूपिया फिर दरबार में पहुंचा और हाथ जोड़कर कहने लगा, "राजन्‌, अब तो आपने स्वांग देख लिया होगा और पसंद भी आया होगा। अब तो मेरी कला पर प्रसन्‍न होकर अधिक नहीं, तो दस रूपये का पुरस्कार तो दे दीजिए, ताकि परिवार के लालन-पालन हेतु आटा-दाल की व्यवस्था कर सकूँ"।

"छि: छि: तुझ जैसा मूर्ख व्यक्ति मैंने आज तक नहीं देखा। जब संपूर्ण राज्य की जनता अपना सर्वस्व लुटाने के लिए तेरे-चरणों के पास आतुर खड़ी थी, तब तूने धन-दौलत के उस ढेर पर एक नजर तक नहीं डाली और अब मात्र दस रूपये के लिए याचना करता है"। 

बहुरूपिये ने कहा- "राजन, उस समय एक तपस्वी की मर्यादा का प्रश्न था। एक साधु के वेश की लाज रखने की बात थी। भले ही साधु के रूप में बहुरूपिया हो, पर था तो एक साधु ही। फिर वह धन-दौलत की ओर दृष्टि उठाकर कैसे देख सकता था? उस समय सारे वैभव तुच्छ थे और अब पेट की ज्वाला शांत करने के लिए अपने श्रम के पारिश्रमिक और पुरस्कार की मांग है, आपके सामने"।  

बहुरूपिये के जवाब से राजा बहुत प्रभावित हुआ। उसने बहुरूपिये की प्रशंसा की और  पर्याप्त धन-धान्य देकर उसे विदा किया। (Motivational Stories | Stories)

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