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गुरू गिलहरी
Moral Story गुरू गिलहरी:- घर-बार और राज-परिवार छोड़कर सिद्धार्थ ने सत्य की खोज में स्वयं को समर्पित कर दिया, तो स्वाभाविक ही था कि अनेकों कष्ट, कठिनाईयों से मुकाबला करना पड़ा। राजसी सुविधाओं के अभ्यस्त सिद्धार्थ के लिए अरण्यवास वैसे ही असुविधाजनक था और फिर ऊपर से कठिन साधनाएं और कठोर व्रत-उपवास। (Moral Stories | Stories)
भोजन की मात्रा घाटाते-छाटाते एकदम निराहार रहने लगे, वस्त्र इतने कम हो गए कि, दिशाएं ही वस्त्र बन गई, फिर भी लक्ष्य प्राप्ति दूर ही रही। उन्हें लगने लगा कि मन की शांति ही मृगतृष्णा है। संसार असार तो है ही, परन्तु सत्य भी यही है। जिस धैर्य का सम्बल पकड़ कर वे साधना समर में उतरे थे वह जवाब देने लगा और इस भ्रम से स्वयं को निकालने के लिए उठने लगे। अंततः बुद्ध घर वापस लौटने की तैयारी करने लगे। जब वे घर की ओर लौट रहे थे तो रास्ते में एक ठण्डे जल की झील पड़ी। झील के किनारे खड़े होकर वे उसे देखने लगे।
उनकी दृष्टि एक गिलहरी पर पड़ी, जो बार-बार झील में डुबकी लगाती, बाहर आती, रेत में लोटती और पुनः...
उनकी दृष्टि एक गिलहरी पर पड़ी, जो बार-बार झील में डुबकी लगाती, बाहर आती, रेत में लोटती और पुनः झील में डुबकी लगाने के लिए दौड़ पड़ती। बुद्ध को बड़ा आश्चर्य हुआ। देर तक वे उसे देखते रहे, जब गिलहरी की क्रिया में कोई अंतर नहीं आया तो आखिर वे पूछ ही बैठे। (Moral Stories | Stories)
“नन्हीं गिलहरी! यह कया कर रही हो तुम?
“इस झील ने मेरे बच्चों को खा लिया है। अब मैं इसे खाली करके ही रहूंगी। सिद्धार्थ को हंसी आ गई “तो क्या तुम सोचती हो कि तुम्हारी पूंछ को पानी में डुबोने से इतनी बड़ी झील खाली हो जायेगी।" यह तो मै नहीं सोचती, परन्तु जब तक झील खाली न हो जाये, तब तक ऐसा ही करती रहूंगी।'' (Moral Stories | Stories)
भला बताओ, तो अनुमानत: यह कितने समय में हो सकेगा।
“इसका अनुमान लगाने का मेरे पास समय नहीं है।"
"इस जन्म में तो सम्भव नहीं है।"
“भले ही न हो। मेरा सारा जीवन ही इसमें लग जाये, परन्तु इतना तो निश्चित है कि इस प्रकार चुल्लू-चुल्लू भर पानी निकालकर मैं अपना काम तो पूरा करने की ओर बढ़ती ही रहूंगी।" (Moral Stories | Stories)
और गिलहरी यह कहकर अपने काम मे पुनः लग गई कि “मेरे पास बातें करने का समय नहीं है, मुझे काम करने दो।”
गिलहरी की इन बातों को सिद्धार्थ ने कानों से तो कम, हृदय से अधिक सुना और उनका खोया हुआ आत्मविश्वास पुनः लौट आया। वे सोचने लगे कि यह नन्हीं सी गिलहरी भी अपने सामर्थ्य, समय और क्षमता का विचार किये बिना आजीवन इस बोझिल कार्य को पूरा करने के लिए सन्नद्ध है तो मैं ही क्यों इतनी जल्दी हार मान लूं? जबकि मेरा लक्ष्य तो सुनिश्चित है और उसके पथ पर भी काफी हद तक बढ़ चका हूं। उन्होनें बीच में ही-अपना इरादा बदल दिया और खोया हुआ धैर्य पुनः जुटाकर तप स्थल की ओर लौटे कि "जब तक मैं अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लूंगा, तब तक कोई बात मन में नहीं लाऊंगा, न ही कोई निर्णय लूंगा, अपने मार्ग के संबंध में इस गिलहरी ने मेरे जीवन का एक नया अध्याय खोल दिया है। यह मेरी गुरू है और सफलता के लिए अंतिम सांस तक प्रयत्न करूँगा।"
सिद्धार्थ फिर ध्यानावस्थित हो गये और उस समय तक साधना में लगे रहे जब तक कि उन्हें ज्ञान प्राप्त नही हो गया। (Moral Stories | Stories)
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