Moral Story: अकलूराम ने अक्ल खरीदी

एक थे पंडित जी नाम था अकलूराम जब तक उनके पिताजी थे, उन्हें रोजी-रोटी सम्बन्धि जरा भी चिंता नहीं हुई क्योकि पिताजी को जजमानों के यहां से अच्छी खासी-आमदनी हो जाया करती थी। अकलू राम भरपेट खाते और गप्पे हांका करते थे।

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अकलूराम ने अक्ल खरीदी

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Moral Story अकलूराम ने अक्ल खरीदी:- एक थे पंडित जी नाम था अकलूराम जब तक उनके पिताजी थे, उन्हें रोजी-रोटी सम्बन्धि जरा भी चिंता नहीं हुई क्योकि पिताजी को जजमानों के यहां से अच्छी खासी-आमदनी हो जाया करती थी। अकलू राम भरपेट खाते और गप्पे हांका करते थे। पिताजी ने उन्हें कहीं बाहर जाकर कमाने-धमाने की सलाह दी थी पर अकलू राम के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती थी। पिताजी कुछ दिनों तक उनकी गतिविधियों को देखते रहे मगर जब कोई सुधार नजर नहीं आया तो उन्होंने अकलू राम की शादी कर दी। सोचा शायद बहू अकलूराम को परिवार की जिम्मेदारियों से अवगत कराए और वह रास्ते पर आ जाएं। अकलू राम की शादी हुए अभी पूरे दो माह भी नही गुजरे थे कि अचानक उनके पिताजी गुजर गए। अपनी पत्नी के साथ अकलू राम भी बस छाती पीटते रह गए। जब फाकाकसी की नौबत आई तो अकलूराम की पत्नी रूपमती ने एक दिन रात को पैर दबाते हुए कहा अजी सुनते हो भला इस तरह कब तक चलेगा बाहर जाकर रोजी-रोटी का कोई बन्दोबस्त क्यों नहीं करता। मगर मै जाऊं भी तो कैसे अकलूराम ने रूपमती से कहा पास में कुछ पैसे तो हों? रूपमती ने अपना बक्सा खोला और जमा पूंजी आठआने अकलूराम जी को थमा दिये। पैसे लेकर अकलूराम सुबह ही घर से निकल पड़े। रूपमती ने सत्तु की एक गठरी भी उन्हें थमा दी। अकलूराम बिचारे दिन भर चलते रहे शाम के वक्‍त वह एक अनजाने शहर में जा पहुंचे बाजार में तरह तरह की चीजें बिक रहीं थीं अकलूराम भी कुछ खरीदने की गरज से बाजार में घूमने लगे। (Moral Stories | Stories)

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अचानक उनकी नजर एक बुढ़िया पर जा टिकी वह चुपचाप बैठी थी उनके सामने एक खाली टोकरी रखी थी जिसे उसने एक फटी चादर से ढक रखा था अकलूराम को मन ही मन हंसी आ गई उन्होंने बुढ़िया के पास जाकर कहा क्या बेच रही हो बूढ़ी मां बुढ़िया ने अकलूराम को एक बार ऊपर से नीचे देखा और कहा बेटा मैं अक्ल बेच रही हूं अकलूराम सोचने लगे कि सब कुछ तो बिकते हुए सुना था मगर अक्‍ल बेचते खरीदते तो न कहीं देखा था और न कहीं  सुना था। फिर भी उन्होंने उत्सुकता वश सवाल किया कैसे दे रही हो अकल बस चार आने की एक है बेटा कितनी दूं बुढिया ने मुस्कान देकर कहा अकलूराम ने जेब टटोली मगर आठ आने ही तो थे। फिर भी उन्होंने एक चवन्नी निकाल कर बुड़िया को थमाते हुए कहा बूढ़ी मां, एक अक्ल दे दो बुढ़िया ने सिक्के को गठियाते हुए कहा बेटा सामने आई रोजी रोटी को कभी लात मत मारो। मगर यह तो मुझे खुद मालूम है इसमें नया पन क्या है अकलूराम ने तुनककर कहा। जानते तो होंगे बेटा मगर जब तुम इसे पैसे देकर खरीदोगे तो तुम इसकी असली कीमत समझोगे और सदा याद रखोगे बुढ़िया ने समझाया। अकलूराम के पास अब एक चवन्नी शेष बच रही थी उन्होंने कुछ सोचकर फिर कहा बुढ़ी मां तब एक अकल और दे दो उन्होंने चवन्नी बुढ़िया को दे दी, बुढ़िया ने कहा बेटा रहस्य कौ बात किसी को भी न बताना चाहे वह तुम्हारी पत्नी ही क्यों न हो।

अकलूराम आगे गये तभी उनकी नजर सड़क पर जमी हुई भीड़ पर गई एक आदमी की लाश सड़क पर पड़ी थी सामने कोई दुकानदार...

अकलूराम आगे गये तभी उनकी नजर सड़क पर जमी हुई भीड़ पर गई एक आदमी की लाश सड़क पर पड़ी थी सामने कोई दुकानदार बार-बार चिल्ला रहा था- ''अरे भई, कोई ऐसा आदमी है जो इस मुर्दे को उठाकर गंगा में फेंक आए मैं उसे आठ आने दूंगा। अकलूराम के जी में आया कि वह आगे बढ़कर कहे- ''अजी मैं फेंक देता हूं मगर तभी उसके मन में यह बात आई की ब्राहमण होकर वह ऐसा नीच काम करेगा वह कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा था तभी उसके दिमाम में बुढ़िया की सीख याद हो आई कि सामने आई रोजी को लात नहीं मारनी चाहिए। (Moral Stories | Stories)

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उन्होंने तत्काल आगे बढ़कर कहा मैं इसे फेंक आता हूं सेठ जी। दुकानदार ने अकलूराम को अठन्नी थमाई और वह मुर्दे को कंधे पर लादकर आगे बढ़े रात हो आई थी उबड़ खाबड़ रास्ते पर चलते-चलते अचानक मुर्दे का सिर वाला हिस्सा थोड़ा नीचे की ओर झुका और झन से कुछ जमीन पर गिर पड़ा। अकलूराम ने गौर से देखा तो एक एक रूपये के चांदी के दो सिक्के जमीन पर पड़े दिखाई दिये उन्होंने सिक्कों को जेब में रखा और आगे बढ़ने लगा तभी फिर कुछ सिक्के गिरे अकलूराम हथप्रभ से मुर्दे को देखने लगे उन्होंने शव को जमीन पर रखा और कोट को काट डाला भीतर जेब से कई स्वर्ण मुद्राएं निकलीं चांदी के ढेर सारे सिक्के भी हाथ आए। अकलू राम की प्रसन्‍नता की सीमा न रही उन्होंने सिक्कों को ताबड़ तोड़ जेबों में ठूंसा, स्वर्ण मुद्राएं धोती में लपेटकर गठियाई और मृतक को गंगा में प्रवाहित कर दिया और भोर होते ही अपने गांव की ओर रवाना हुआ। मकान में दाखिल होकर अकलूराम ने अंदर से किवाड बंद कर दिये और चांदी के सिक्के तथा स्वर्ण मुद्राएं एक-एक कर निकालने लगे।

रूपमती की आंखे चौंधिया गई। वह सोच ही नहीं पा रही थी कि उसके पिनट देहाती पति ने इतनी दौलत एक रोज में ही कैसे कमा ली मगर उस वक्‍त उसने यह सब पूछना उचित नहीं समझा और उनको छिपाने सहेजने में जी जान से जुट गई। (Moral Stories | Stories)

अब अकलूराम का परिवार सुख-चैन से जीवन यापन करने लगा। अकलूराम ने गांव में किराना की पहली दुकान खोली और कुछ ही दिनों में एक आलीशान मकान भी बनवाया।

पड़ोसियों को अकलूराम के धन से ईर्ष्या होने लगी। एक रोज एक पड़ोसिन ने रूपमती से कहा- "बहन तुम्हारे पति ने इतने सारे रूपये कहां से जमा कर लिए? कहीं चोरी तो नहीं की?” हां बहन यह तो मैने कभी उनसे पूछा ही नहीं। रूपमती ने सोचते हुए कहा- आज रात में उनसे जरूर पूछूंगी कहकर वह घर की तरफ चल दी।

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रात में जब अकलूराम पलंग पर खा-पीकर लेट गये, तो रूपमती ने पूछा- अजी। आप उस रोज ढेर सारे सिक्के और मोहरें कहां से उठाकर लाए थे मुझे बताया तक नहीं अरे छोड़ो भाग्यवान तुम्हें आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से अकलूराम ने टालने के अंदाज से कहा उन्हें तो बुढ़िया ने बता ही दिया था कि रहस्य की बात किसी से भी नहीं बतानी चाहिए, अपनी पत्नी से भी नहीं मगर रूपमती हठ कर बैठी नहीं तुम्हें बताना ही होगा तुम्हें मेरी कसम अकलूराम पशोपेश में पड़ गए उधर पड़ोसिन तीन और पड़ोसियों को साथ लिए हुए खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई थी यह सोचकर कि रूपमती कहीं उसकी झूठी बात न बता दे। अकलूराम को यह समझते देर न लगी कि यह पड़ोसिनों की चाल है वरना इतने दिनों के बाद रूपमती को यह बात याद कैसे आई अकलूराम ने मुस्कुराते हुए कहा देखो भई नहीं मानोगी तो सुन लो जिस रोज मैं घर से निकला था शाम को मुझे एक महात्मा मिले उन्होंने एक राज की बात बताई बेटा आधी रात को मांग में सिंन्दूर भरकर खेत में जाना और दोनों आंखों में मदार का दूध लगा लेना फिर जो भी सामने हो बटोर कर घर लाना सुबह होते ही वे सोने की मुद्राएं और चांदी के सिक्के हो जायेंगे मैने वैसे ही किया था और यह बात कभी किसी पड़ोसी को न बताना वरना रहस्य खुल जाएगा और वह भी माला माल हो जाएंगे। अकलूराम का इतना कहना था कि पड़ोस की औरतें खेत की ओर दौड़ीं।

सुबह जब रूपमती रहस्य की बात बताने के लिए पड़ोस में गई तो उसने चारों पड़ोसिनों को अंधी होकर माथा पिटते हुए पाया। जब अकलूराम को यह खबर मालूम हुई तो उन्होंने मन ही मन कहा- “ईर्ष्या की आग में जलने वालों का यही परिणाम होता है"। (Moral Stories | Stories)

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